भारत जैसे देश में जहाँ एक तरफ देवी की पूजा होती है, वहीं दूसरी ओर आज भी महिलाओं को पीरियड्स के दौरान मंदिर जाने, पूजा करने या किसी धार्मिक अनुष्ठान में शामिल होने से रोका जाता है। यह परंपरा सदियों पुरानी है, लेकिन सवाल अब भी वही है क्यों? क्या यह सच में “अशुद्धता” का मामला है या सिर्फ एक सामाजिक सोच?
परंपरा की जड़ें, धर्म या सफाई?
अगर हम इतिहास और पुरानी परंपराओं को देखें, तो यह रोक “अशुद्धता” नहीं बल्कि आराम से जुड़ी थी। पुराने समय में न तो सैनिटरी पैड्स थे, न ही मेडिकल सुविधाएँ। उस दौर में महिलाएँ मासिक धर्म के दौरान थकान, दर्द और कमजोरी महसूस करती थीं। इसलिए उन्हें घर के कामों और पूजा जैसी गतिविधियों से आराम देने के लिए अलग रखा जाता था। मगर वक्त के साथ यह सोच बदल गई और “आराम” का यह विचार “अशुद्धता” में बदल दिया गया — यही से शुरुआत हुई period taboo की।
आधुनिक समय में भी क्यों कायम हैं ये रोकें?
आज जब महिलाएँ हर क्षेत्र में आगे बढ़ रही हैं, तब भी कई घरों में “पीरियड्स में मंदिर मत जाना” जैसी बातें सुनने को मिलती हैं। कुछ लोग इसे परंपरा मानकर निभाते हैं, जबकि कुछ इसे तोड़ना भी चाहते हैं लेकिन समाजिक दबाव उन्हें रोक देता है। कई महिलाएँ मानती हैं कि हमारा शरीर गंदा नहीं, बल्कि प्राकृतिक है, फिर भी उन्हें पूजा या मंदिर से दूर रखा जाता है। यानी आज की महिला के मन में भी आस्था और आत्म-सम्मान के बीच एक टकराव कायम है।
महिलाओं की राय — अब बदलनी होगी सोच
आज की पीढ़ी की महिलाएँ इस विषय पर खुलकर अपनी राय रख रही हैं। उनका कहना है कि मासिक धर्म कोई शर्म या पाप नहीं, बल्कि एक biological प्रक्रिया है। सोशल मीडिया पर भी कई महिलाएँ इस मुद्दे पर बोल रही हैं — उनका संदेश साफ है, “भगवान को सफाई नहीं, श्रद्धा चाहिए।” अगर मन और इरादे साफ हैं, तो शरीर के किसी प्राकृतिक बदलाव से आस्था पर असर नहीं पड़ना चाहिए। कई युवतियाँ मानती हैं कि अगर देवी भी स्त्री हैं, तो उन्हें भी यह प्रक्रिया होती होगी। तो फिर एक महिला को “अशुद्ध” कहना कितना सही है?
धार्मिक दृष्टिकोण से क्या सच में मनाही है?
अगर हम धार्मिक दृष्टिकोण से देखें तो किसी भी धर्मग्रंथ में यह नहीं लिखा कि मासिक धर्म के दौरान महिला मंदिर नहीं जा सकती। यह ज़्यादातर सामाजिक परंपराओं और गलत व्याख्याओं का नतीजा है। कुछ विद्वान मानते हैं कि पीरियड्स के दौरान शरीर energy-releasing अवस्था में होता है, जबकि पूजा energy-absorbing प्रक्रिया है। इसलिए उस समय आराम की सलाह दी जाती थी, लेकिन इसका अर्थ “अपवित्रता” नहीं था। इसका मतलब सिर्फ था शरीर को विश्राम देना जरूरी है।
विज्ञान क्या कहता है?
विज्ञान की दृष्टि से देखा जाए तो मासिक धर्म एक सामान्य जैविक प्रक्रिया है। इस दौरान महिला का शरीर स्वस्थ रहता है और पूजा या किसी धार्मिक स्थान पर जाने में कोई हानि नहीं होती। डॉक्टरों के अनुसार, इस समय शरीर से कोई “impurity” नहीं निकलती बल्कि यह एक प्राकृतिक पुनर्जनन प्रक्रिया है। इसलिए अगर विज्ञान इसे सामान्य मानता है, तो समाज को भी इसे उसी तरह स्वीकार करना चाहिए। असली सवाल यह है कि क्या परंपरा को वैज्ञानिक सोच से ऊपर रखना सही है?
बदलाव की शुरुआत खुद महिलाओं से
बदलाव की शुरुआत तभी होती है जब कोई “ना” कहने की हिम्मत दिखाए। कई महिलाएँ अब अपने घरों में इस विषय पर खुली चर्चा कर रही हैं। वे अपनी बेटियों को यह समझा रही हैं कि पीरियड्स शर्म नहीं, शक्ति का प्रतीक हैं। कई मंदिरों और धार्मिक संस्थानों ने भी अब महिलाओं के लिए अपने दरवाज़े खोले हैं। यह संकेत है कि समाज धीरे-धीरे समझ रहा है मासिक धर्म कोई अपमान नहीं, बल्कि प्रकृति की देन है।
आस्था और समानता साथ-साथ
आस्था हमारी ताकत है, लेकिन उसके साथ समानता और सम्मान भी उतने ही ज़रूरी हैं। अगर भगवान हर जीव में हैं, तो फिर महिला को उसके शरीर के एक प्राकृतिक चक्र के कारण मंदिर से दूर रखना कैसा न्याय है? अब वक्त है इस सोच को बदलने का पीरियड्स गंदगी नहीं, बल्कि सृजन की शक्ति हैं। जिस शरीर से जीवन की शुरुआत होती है, उसे कभी “अशुद्ध” नहीं कहा जा सकता।
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