“अब 28 की हो गई हो, शादी कब कर रही हो?”, “बेटी, लोग क्या कहेंगे अगर तू और देर कर देगी?”
ऐसे सवाल आज भी हर दूसरी लड़की से पूछे जाते हैं, चाहे वह पढ़ी-लिखी, कामकाजी या आत्मनिर्भर क्यों न हो। भारत जैसे समाज में, महिलाओं की उम्र को उनकी वैल्यू से जोड़ा जाता है।जहाँ लड़कों के लिए “करियर और स्थिरता” की उम्र मायने रखती है, वहीं लड़कियों के लिए “शादी की सही उम्र” एक सामाजिक टॉपिक बना दिया गया है। लेकिन सवाल ये है क्या हर लड़की का जीवन लक्ष्य सिर्फ शादी करना है?
समाज की सोच: औरत की उम्र, शादी की डेडलाइन क्यों?
हमारे समाज में यह मान्यता गहरी बैठी है कि “लड़की की शादी जितनी जल्दी हो, उतना अच्छा।” क्योंकि “उम्र निकल जाने” का डर माता-पिता और रिश्तेदारों को परेशान करता है लेकिन इस सोच के पीछे छिपा है एक पुराना सामाजिक ढांचा,जहाँ महिला की पहचान उसकी शादी से तय होती थी, न कि उसके सपनों या काम से।“अभी तो करियर शुरू हुआ है” कहने पर भी जवाब आता है “शादी के बाद भी करियर बना लेना!” पर कोई ये नहीं सोचता कि शादी हर किसी की प्राथमिकता नहीं होती।
नई पीढ़ी की सोच – शादी नहीं, आत्मनिर्भरता ज़रूरी
आज की महिलाएं अपनी शिक्षा, करियर और आत्मनिर्भरता को प्राथमिकता देती हैं। कई महिलाएं मानती हैं कि शादी तभी करनी चाहिए जब वे खुद तैयार हों, न कि समाज के कहने पर। दिलचस्प बात यह है कि भारत में शहरी महिलाओं की शादी की औसत उम्र अब 26 से बढ़कर 28-30 साल के बीच पहुंच गई है। यह इस बात का संकेत है कि महिलाएं अब अपनी ज़िंदगी का निर्णय खुद लेना चाहती हैं।
शादी का दबाव और मानसिक प्रभाव
लगातार सुनना “उम्र निकल रही है”, “अब कोई अच्छा लड़का नहीं मिलेगा” महिलाओं के mental health पर गहरा असर डालता है।कई बार महिलाएं guilt या emotional pressure में शादी कर लेती हैं, भले ही वे तैयार न हों। परिणाम रिश्ते में असंतुलन, करियर या पढ़ाई का अधूरा रह जाना, आत्मविश्वास में कमी। शादी एक खूबसूरत रिश्ता है, लेकिन जब यह दबाव बन जाए, तो यह खुशी नहीं, बोझ बन जाता है।
“सेटल हो जाओ” का असली मतलब क्या है?
हमारे समाज में “सेटल होना” अक्सर शादी से जोड़ दिया जाता है पर असल सेटलमेंट तब है जब एक व्यक्ति खुद से संतुष्ट और आत्मनिर्भर हो। सेटल होना किसी साथी के साथ नहीं, बल्कि अपने सपनों, करियर और मानसिक शांति के साथ होना है। सेटल होने का मतलब सिर्फ पति और घर नहीं, अपने जीवन का नियंत्रण खुद के पास होना है।आज बहुत सी महिलाएं शादी से पहले घर खरीद रही हैं, यात्रा कर रही हैं, बिज़नेस शुरू कर रही हैं यह भी एक सेटलमेंट है, जिसे समाज अब भी समझने में देर कर रहा है।
माता-पिता और समाज की भूमिका
कई बार शादी का दबाव प्यार से ज़्यादा डर से आता है माता-पिता को लगता है कि “अगर देर हो गई तो लड़की अकेली रह जाएगी।” लेकिन अकेलापन शादी से नहीं, गलत रिश्ते से आता है।माता-पिता को समझना होगा कि लड़की की सुरक्षा और खुशी किसी “नाम” से नहीं, उसके सशक्त होने से आती है।उन्हें अपने बच्चों को यह कहने का हक देना चाहिए “मैं शादी करूँगी, पर जब मैं तैयार होऊँ।”
बदलाव की शुरुआत खुद की शर्तों पर जीना
अब वक्त आ गया है कि महिलाएं खुलकर कहें “मेरी ज़िंदगी का टाइमटेबल मैं तय करूँगी।” शादी कोई फाइनल परीक्षा नहीं, बल्कि एक चॉइस है जो सही समय, सही व्यक्ति और सही मानसिक स्थिति में ही करनी चाहिए।कई सफल महिलाओं ने यह साबित किया है कि शादी देर से करने से ज़िंदगी रुकती नहीं और शादी न करने से महिला अधूरी नहीं होती। असली सशक्तिकरण वही है जब औरत बिना डर के अपनी पसंद जी सके।
“शादी कर लो, उम्र निकल रही है” ये वाक्य आज भी समाज की सोच में गूंजता है। पर अब समय है इस सोच को बदलने का।हर महिला को यह अधिकार है कि वह अपनी ज़िंदगी का फैसला खुद ले चाहे शादी करना हो, देर से करना हो, या बिल्कुल न करना हो। क्योंकि जिंदगी का मकसद शादी नहीं, खुश रहना और खुद को समझना है।