“श्श... ज़ोर से मत बोलो, सुन लेगा कोई।” यह वाक्य हर उस लड़की ने कभी न कभी ज़रूर सुना होगा जिसे दुकान पर सैनिटरी पैड खरीदना हो या किसी दोस्त से पीरियड्स के बारे में बात करनी हो। 21वीं सदी में पहुँचने के बावजूद, मासिक धर्म यानी पीरियड्स आज भी एक ‘राज़’ की तरह छिपाया जाता है। जैसे यह कोई शर्म की बात हो, जबकि यह तो एक प्राकृतिक प्रक्रिया है जिससे हर महिला हर महीने गुज़रती है।
मासिक धर्म एक जैविक नहीं, सामाजिक मुद्दा
मासिक धर्म शरीर की सबसे सामान्य प्रक्रिया है, जो प्रजनन प्रणाली का हिस्सा है। फिर भी, समाज ने इसे ‘अपवित्रता’ और ‘शर्म’ से जोड़ दिया है।कई जगहों पर आज भी महिलाएं पीरियड्स के दौरान मंदिर नहीं जा सकतीं, रसोई में प्रवेश नहीं करतीं, घर के बर्तनों से अलग खाती हैं जो प्रक्रिया जीवन देने के लिए ज़रूरी है, उसी को हमने ‘गंदा’ मान लिया है। यह सोच सिर्फ परंपरा नहीं, बल्कि अज्ञानता का परिणाम है।
चुप्पी की जड़ शर्म और डर
मासिक धर्म पर फुसफुसाकर बात करने की आदत संस्कार नहीं, डर की देन है।छोटी लड़कियों को यह सिखाया जाता है कि इस बारे में ज़्यादा मत बोलो, ये गंदा विषय है पर क्या शरीर के सामान्य बदलाव पर शर्म महसूस करना ठीक है? क्यों एक लड़की को पैड छिपाकर ले जाना पड़ता है मानो वो कोई अपराध कर रही हो? स्कूलों में, ऑफिसों में और घरों में पीरियड्स पर चुप्पी आज भी सबसे ऊँची आवाज़ है।
शिक्षा और जागरूकता की कमी
भारत में कई लड़कियाँ आज भी मासिक धर्म के बारे में बिना जानकारी के पहली बार पीरियड्स झेलती हैं।
UNICEF की एक रिपोर्ट के अनुसार ग्रामीण इलाकों में करीब 70% लड़कियाँ पहली बार पीरियड आने पर नहीं जानतीं कि उनके साथ क्या हो रहा है। क्योंकि घरों में इस विषय पर खुलकर बात नहीं की जाती और स्कूलों में इसे सिर्फ एक किताब का चैप्टर मान लिया जाता है। यह अज्ञानता और शर्म मिलकर महिलाओं की सेहत को नुकसान पहुँचाती है कई बार संक्रमण, एनीमिया और reproductive health की समस्याओं का कारण बनती है।
मीडिया और समाज की भूमिका
टीवी विज्ञापनों में आज भी पैड के दाग़ को नीले रंग से दिखाया जाता है, क्योंकि असली लाल रंग दिखाना “संवेदनशील” माना जाता है। फिल्मों और धारावाहिकों में पीरियड्स पर या तो चुप्पी रहती है या फिर उसे मज़ाक का विषय बना दिया जाता है।हालांकि अब कुछ सकारात्मक बदलाव भी हुए हैं फिल्म PadMan, Period. End of Sentence और Phullu जैसी फिल्मों ने इस विषय पर बात को मुख्यधारा में लाने की कोशिश की है पर असली बदलाव तब आएगा, जब हर घर में “पीरियड” शब्द को बिना झिझक बोलेगा।
पीरियड्स = कमजोरी नहीं, शक्ति
पीरियड्स को “कमज़ोरी” का प्रतीक बनाना सबसे बड़ा भ्रम है।एक महिला हर महीने दर्द, थकान और असहजता के बावजूद अपने काम, घर और ज़िम्मेदारियों को निभाती है यह उसकी सहनशीलता और ताकत का प्रमाण है।जो शरीर हर महीने खून देकर भी मुस्कुराता है, उसे कमजोर कैसे कहा जा सकता है? समाज को यह समझना होगा कि पीरियड्स न तो गंदे हैं, न शर्मनाक यह जीवन की शुरुआत हैं।
बदलाव की दिशा – खुलकर बात करना ज़रूरी
अब वक्त है कि हम फुसफुसाना छोड़कर बोलना शुरू करें। बच्चों को (लड़के और लड़कियों दोनों को)मासिक धर्म के बारे में सही जानकारी दी जानी चाहिए। स्कूलों में खुले सत्र, माता-पिता की खुली बातचीत और मीडिया का ज़िम्मेदार रवैया इस विषय को सामान्य बनाने में मदद कर सकता है। अगर हम पीरियड्स पर बोलना नहीं सीखेंगे, तो महिलाओं की सेहत पर चुप्पी कभी नहीं टूटेगी। आज बहुत सी महिलाएं सोशल मीडिया पर खुलकर period positivity की बातें कर रही हैं और यह संकेत है कि परिवर्तन शुरू हो चुका है।
मासिक धर्म कोई रहस्य नहीं, बल्कि प्रकृति का सबसे सुंदर चक्र है जो हर महीने एक नए जीवन की संभावना लेकर आता है। अब वक्त है कि समाज इस पर फुसफुसाना बंद करे और सम्मान से बात करना शुरू करे। क्योंकि जिस प्रक्रिया से “ज़िंदगी” शुरू होती है, उसे “शर्म” से नहीं, गर्व से देखा जाना चाहिए।
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