Family interference in Marriage: जब घरवालों की राय रिश्ते पर भारी पड़ जाए

family interference in marriage

शादी को अक्सर दो लोगों का नहीं, बल्कि दो परिवारों का मिलन कहा जाता है। सुनने में यह बात खूबसूरत लगती है, लेकिन हकीकत यह है कि जब घरवालों की राय हर छोटी-बड़ी बात में हावी होने लगती है, तो यह रिश्ता बोझिल बनने लगता है। भारतीय समाज में अक्सर देखा गया है कि पति-पत्नी के बीच के निजी मामलों में परिवार की राय इतनी गहरी घुस जाती है कि उनके अपने निर्णयों की कोई अहमियत नहीं रह जाती। कई बार तो रिश्ते सिर्फ इसलिए टूट जाते हैं क्योंकि किसी ने अपने घरवालों की बात को अपनी शादी से ज्यादा महत्व दे दिया।

परिवार की राय, सलाह या दबाव?

हर रिश्ता एक सलाह की जरूरत रखता है, लेकिन जब सलाह आदेश में बदल जाती है, तो वहां प्यार की जगह नियंत्रण आ जाता है। अक्सर माता-पिता या ससुराल वाले यह सोचकर हस्तक्षेप करते हैं कि वे अनुभव से बात कर रहे हैं, लेकिन वे भूल जाते हैं कि हर रिश्ता अलग होता है। 2023 में Pew Research Center की एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में 68% विवाहित जोड़े मानते हैं कि उनके रिश्ते पर परिवार की राय या दखल का सीधा असर पड़ता है। यानी ज्यादातर जोड़े अपनी शादी को पूरी तरह अपनी तरह से नहीं जी पा रहे।

पति-पत्नी के बीच तीसरा व्यक्ति क्यों?

शादी दो लोगों की समझ, भरोसे और संवाद पर टिकी होती है। लेकिन जब किसी भी विवाद में घरवालों की राय “अंतिम निर्णय” बन जाती है, तो पति-पत्नी के बीच का भरोसा कमजोर पड़ने लगता है। बहुत बार पति को यह सिखाया जाता है कि “मां की बात ही अंतिम है”, और पत्नी को यह जताया जाता है कि “तुम्हें घरवालों के हिसाब से ढलना होगा।” नतीजा यह होता है कि दोनों के बीच अपनी बात रखने की हिम्मत ही खत्म हो जाती है। धीरे-धीरे एक रिश्ता जो प्यार से शुरू हुआ था, ‘कौन सही – कौन गलत’ की जंग बन जाता है।

भावनात्मक दखल से बढ़ती दूरियां

परिवार की दखल सिर्फ शब्दों तक सीमित नहीं रहती, यह भावनात्मक दबाव का रूप ले लेती है। खासकर महिलाओं पर “घर संभालने” और “सबको खुश रखने” की जिम्मेदारी डाल दी जाती है। उन्हें सिखाया जाता है कि “घरवालों की बात टालना बुरा है”, चाहे उससे उनका खुद का रिश्ता क्यों न बिगड़ जाए। मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि इस तरह की पारिवारिक दखल रिश्तों में emotional burnout और mental stress का कारण बनती है।

Indian Journal of Psychology की एक रिपोर्ट बताती है कि जिन रिश्तों में परिवार बार-बार हस्तक्षेप करता है, उनमें separation या conflict की संभावना 40% तक बढ़ जाती है। इसका सीधा असर दंपति के mental health और mutual trust पर पड़ता है।

सीमाएं तय करना गलत नहीं है

हमारे समाज में “boundaries” शब्द को गलत समझा जाता है। लोगों को लगता है कि सीमाएं बनाना मतलब घरवालों से दूर रहना या उन्हें नज़रअंदाज़ करना। जबकि सच्चाई यह है कि healthy boundaries ही रिश्ते को संतुलित रखती हैं। अगर पति-पत्नी यह तय कर लें कि उनकी निजी बातों में किसी तीसरे की राय अंतिम नहीं होगी, तो कई गलतफहमियां कभी जन्म ही नहीं लेंगी। एक समझदार रिश्ता वही है जो “हम दोनों की बात” पर खत्म हो, “घरवाले क्या कहेंगे” पर नहीं।

घरवालों की राय कब ज़रूरी और कब नुकसानदायक होती है

बड़ों की सलाह तब तक उपयोगी है जब तक वह संतुलन बनाए रखे। जीवन के अनुभव से मिली सीख बहुत कीमती होती है, लेकिन जब वह सीख आदेश बन जाती है तो रिश्ते में असमानता आ जाती है। हर व्यक्ति को यह समझना चाहिए कि शादी सिर्फ परिवार की प्रतिष्ठा नहीं, बल्कि दो लोगों की व्यक्तिगत यात्रा है। अगर हर निर्णय घरवालों के अनुसार लिया जाएगा, तो रिश्ते में अपनी पहचान खो जाती है।

समझ और बातचीत ही समाधान है

अगर रिश्ता परिवार की राय के दबाव में झुक रहा है, तो सबसे जरूरी है खुलकर बातचीत करना। अपने साथी से यह कहना कि “मुझे लगता है कि हमारी जिंदगी में दूसरों की बातें ज़्यादा असर डाल रही हैं” किसी बहस की शुरुआत नहीं, बल्कि समाधान की दिशा में कदम है। कई बार सिर्फ संवाद ही ऐसे मुद्दों को हल कर देता है।

रिश्ते में दोनों को यह समझना जरूरी है कि घरवालों का सम्मान और अपनी सीमाएं – दोनों साथ चल सकते हैं। किसी भी रिश्ते को मजबूत करने के लिए emotional independence उतनी ही जरूरी है जितनी emotional bonding। हर रिश्ता तब ही फलता-फूलता है जब उसमें सिर्फ दो दिलों की आवाज़ सुनी जाती है, न कि सौ रायें। घरवालों की राय महत्वपूर्ण है, लेकिन उसका बोझ रिश्ते पर नहीं पड़ना चाहिए। 

अगर पति-पत्नी एक-दूसरे को सुनना और समझना सीख लें, तो किसी तीसरे की राय उनके बीच दीवार नहीं बन सकती। आखिरकार, शादी का रिश्ता तभी मजबूत रहेगा जब दोनों यह तय करें कि यह रिश्ता “हमारा” है  न सिर्फ घरवालों का, न समाज का, बल्कि सिर्फ दो लोगों का फैसला और दो लोगों की जिम्मेदारी।

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