भारत जैसे देश में जहां हम विज्ञान और तकनीक में तेजी से आगे बढ़ रहे हैं, वहीं एक विषय है जिस पर अब भी चुप्पी साध ली जाती है सेक्स एजुकेशन। यह विषय आज भी ‘शर्म’ और ‘संकोच’ की दीवारों के पीछे छिपा हुआ है। खासकर महिलाओं के लिए, जिनके शरीर और भावनाओं से जुड़ी सच्चाइयों को समाज अक्सर मिथक, डर और अज्ञानता के पर्दे में ढक देता है।
जब भी “सेक्स एजुकेशन” शब्द आता है, बहुत से लोगों को लगता है कि यह “अश्लीलता” सिखाने का तरीका है पर सच यह है कि सेक्स एजुकेशन का मतलब है शरीर, स्वास्थ्य, संबंध और सुरक्षा से जुड़ी जानकारी देना। यह बच्चों और युवाओं को यह सिखाता है कि उनका शरीर कैसे बदलता है, सहमति (consent) का क्या मतलब है, और खुद को शोषण से कैसे बचाएं।भारत में अभी भी कई स्कूलों में इसे “अनुचित विषय” मानकर या तो सिखाया नहीं जाता या बहुत सतही तौर पर छुआ जाता है पर यही जानकारी की कमी आगे चलकर महिलाओं की शारीरिक और मानसिक सेहत पर गहरा असर डालती है।
सेक्स एजुकेशन की कमी ने महिलाओं के आसपास कई गलत धारणाओं को जन्म दिया है। पीरियड्स के दौरान पूजा नहीं करनी चाहिए। सेक्स के बारे में बात करना गलत है। शादी से पहले कुछ भी जानना शर्म की बात है। गर्भनिरोधक सिर्फ शादीशुदा महिलाओं के लिए होते हैं। इन मिथकों ने महिलाओं को न सिर्फ जानकारी से दूर रखा, बल्कि उन्हें अपने शरीर को लेकर गिल्ट और डर में भी जीना सिखा दिया।
UNESCO की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत की 60% से अधिक किशोरियों को यौन स्वास्थ्य की कोई औपचारिक शिक्षा नहीं मिलती। इसका सीधा असर उनकी सुरक्षा और स्वास्थ्य पर पड़ता है। कई लड़कियां यह नहीं जानतीं कि अनचाही प्रेगनेंसी से कैसे बचा जाए। बहुत सी महिलाएं यह नहीं समझ पातीं कि consent का उल्लंघन क्या होता है। कई बार उन्हें यह भी नहीं सिखाया जाता कि sexual abuse या harassment की पहचान कैसे करें। सेक्स एजुकेशन की कमी के कारण महिलाएं अपने अधिकारों को नहीं पहचान पातीं और कई बार शोषण को भी सामान्य मानकर चुप रह जाती हैं।
सेक्स एजुकेशन का मतलब बच्चों को सेक्स सिखाना नहीं, बल्कि उन्हें यह सिखाना है कि उनका शरीर उनका अपना है, और हर निर्णय उनका अधिकार है। इससे महिलाओं में आत्मविश्वास बढ़ता है, शारीरिक सुरक्षा को लेकर जागरूकता आती है और समाज में “शर्म” के बजाय “सम्मान” का माहौल बनता है। अगर छोटी उम्र से बच्चों को ये बातें सही ढंग से सिखाई जाएं, तो आगे चलकर न सिर्फ यौन शोषण के मामले घटेंगे, बल्कि महिलाएं अपनी सेहत, रिश्ते और पहचान को बेहतर तरीके से समझ पाएंगी।
सेक्स एजुकेशन सिर्फ स्कूल की किताबों तक सीमित नहीं रहनी चाहिए। माता-पिता, शिक्षकों और समाज को भी अपनी सोच बदलनी होगी। अगर घर में मां अपनी बेटी से खुलेपन से इस विषय पर बात करेगी, तो लड़की भी अपने सवाल पूछने से नहीं डरेगी।शर्म और चुप्पी के बजाय अगर हम संवाद और समझ का माहौल बनाएँ, तो आने वाली पीढ़ी एक स्वस्थ और सशक्त सोच के साथ बड़ी होगी।
भारत में आज कई NGOs और health organizations जैसे UNICEF, Love Matters India, TARSHI आदि सेक्स एजुकेशन को बढ़ावा दे रहे हैं। ऑनलाइन माध्यम से भी महिलाएं अब जानकारी ले रही हैं लेकिन यह शुरुआत है। जब तक स्कूल और परिवार दोनों इस विषय को सामान्य नहीं मानेंगे, तब तक यह बदलाव अधूरा रहेगा। सेक्स एजुकेशन कोई “बुरा” या “गंदा” विषय नहीं है यह स्वास्थ्य, सम्मान और स्वतंत्रता की बात है। मिथकों को तोड़ना ही सही जानकारी की पहली सीढ़ी है और जब महिलाएं अपने शरीर और अधिकारों को समझेंगी, तभी वे सच में सशक्त कहलाएंगी।
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